शहीद निर्मल महतो के 67 वें जयंती पर उन्हें शत् शत् नमन
आईये थोड़ा जान ले शहीद निर्मल महतो "दादा" के बारे में..!!
झारखण्ड अलग राज्य के लिए अपना महत्वपूर्ण योगदान देने वाले और अपने बहुमूल्य जीवन का बलिदान देने वाले महान प्रेरणादायक, झारखण्ड के सच्चे और वीर सपूत निर्मल महतो का जन्म बिहार प्रदेश (तत्कालीन झारखण्ड) के सिंहभूम जिलान्तर्गत जमशेदपुर के उलियान नामक गाँव में 25 दिसंबर 1950 को हुआ था। इनके पिता का नाम श्री जगबंधु महतो और माता का नाम श्रीमती प्रिया महतो था। जगबंधु महतो के आठ पुत्र और एक पुत्री में से निर्मल महतो द्वितीय पुत्र थे, जो बचपन में बहुत ही नटखट माने जाते थे।
निर्मल महतो ने जमशेदपुर टाटा वर्कर्स यूनियन हाई स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा पास की थी तथा जमशेदपुर को-ऑपरेटिव कॉलेज से स्नातक की डिग्री हासिल की थी। पिता के टिस्को की नौकरी से अवकाश प्राप्त कर लेने से घर की आर्थिक स्थिति बिगड़ने लगी थी। इस कारण निर्मल महतो पढ़ाई के साथ-साथ बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाते थे और घर की आमदनी में योगदान देते थे। निर्मल महतो अंत तक बुरी आदतों के शिकार कभी नहीं बने, जैसे, न बीड़ी-सिगरेट, न खैनी-गुड़ाखू, न दारू पीने का लत और ना ही किसी और तरह की कोई भी कुसंगती का। सदा हंसमुख चेहरा वाले कर्मठ निर्मल, कठिन-से-कठिन परिस्थितियों में भी नहीं घबड़ाते थे। शांति पूर्वक तत्काल निर्णय लेना उनकी सबसे बड़ी विशेषताओं में से एक थी। उनमें बचपन से नेतृत्वकारी गुण थे। वे आजीवन अविवाहित रहे। उनमें कुछ कर गुजरने की ललक हमेशा रहती थी।
निर्मल महतो छात्र जीवन से ही राजनीति में रूचि लेने लगे थे। 1975 में कुछ असामाजिक तत्वों से उन्हें मुठभेड़ भी करनी पड़ी और अपनी पढ़ाई उन्हें अधूरी ही छोड़ देनी पड़ी। इसके बाद छात्र आंदोलन का नेतृत्व करते हुए वे झारखण्ड आंदोलन में कूद पड़े। अपना राजनीतिक जीवन उन्होंने झारखण्ड पार्टी से शुरू किया और एक जुझारू नेता के रूप में अपने आप को स्थापित किया। वे 1980 के बिहार विधान सभा के चुनाव में लड़े, लेकिन विजयी नहीं हुए, क्योंकि सभी पार्टियां और पूँजीपति मिलकर उन्हें हराने का भरसक प्रयास किया था।
झारखण्ड पार्टी में सन् 1972 से 1980 तक रहते हुए वे लगातार ग्रामीणों और शहर के गरीब लोगों के लिए काम करते रहे। आगे चलकर झारखण्ड पार्टी में आयी हुई पतनशीलता को देखते हुए एवं शैलेन्द्र महतो की प्रेरणा से गुआ-गोली- काण्ड के बाद वे 15 दिसंबर 1980 को झारखण्ड मुक्ति मोर्चा (झा० मु० मो०) में विधिवत रूप से शामिल हो गए।
झारखण्ड क्षेत्र में खुटकटी हक़ को बरक़रार रखने का आंदोलन, जंगल और सुदूर देहाती क्षेत्रों के सड़कों को मुख्य सड़क से जोड़ने का आंदोलन, स्कूल निर्माण एवं अस्पताल खोलने का आंदोलन, जंगल से उत्पादित वस्तुओं का उचित मूल्य आदिवासियों को मिले, देहात के हाट-बाज़ारों में महसुल वसूली बंद का आंदोलन, कारखानों एवं खदानों में नौकरी पाने का आंदोलन समेत ऐसे कई आंदोलन जारी किया गया था। इस ऐतिहासिक आंदोलन के दरम्यान गुआ बाजार में 08 सितम्बर 1980 को झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के विशाल सभा को पुलिस अपनी राइफल से लाशों के ढेर में बदल देती है।
18 जुलाई 1981 को जमशेदपुर में झामुमो का जिला सम्मलेन आयोजित किया गया, जिसमें निर्मल महतो को मोर्चा का जिला उपाध्यक्ष निर्वाचित किया गया। 21 अक्टूबर 1982 को सुवर्ण रेखा डैम (चांडिल) से विस्थापित परिवारों को पुनर्वासित कराने एवं उन्हें नौकरी दिलाने के लिए क्रांतिकारी छात्र युवा मोर्चा द्वारा तिरुलडीह स्थित ईचागढ़ प्रखंड कार्यालय के सामने जन-प्रदर्शन के आयोजन में पुलिस की गोलियां चली। उस गोलीकांड में चांडिल स्थित सिंहभूम कॉलेज के दो छात्र अजीत महतो और धनञ्जय महतो शहीद हुए। इस गोलीकांड के बाद निर्मल महतो पर आम लोगों का विश्वास और बढ़ा।
01 और 02 जनवरी 1983 को धनबाद में झामुमो का प्रथम केन्द्रीय महाधिवेशन हुआ और श्री निर्मल महतो को उनकी कर्मठता एवं कार्यशैली से प्रभावित होकर उसी समय केंद्रीय कार्यकारिणी समिती का सदस्य चुन लिया गया। 06 अप्रैल 1984 को बोकारो में झामुमो की केन्द्रीय समिती की बैठक हुई, जिसमें सर्वसम्मति से निर्मल महतो को अध्यक्ष चुना गया। इस प्रकार श्री निर्मल महतो को उनकी कर्मठता, लगनशीलता और पार्टी के प्रति वफादारी के कारण अल्प समय में ही पार्टी का सर्वोच्च पद का सम्मान दिया गया। 1984 ई० में वे रांची लोकसभा क्षेत्र और 1985 में ईचागढ़ क्षेत्र से लड़े, किन्तु दोनों में विजयी नहीं हो सके।
28 अप्रैल 1986 के झामुमो के द्वितीय केंद्रीय महाधिवेशन में दूसरी बार भी उनको पार्टी का अध्यक्ष चुना गया। वे जीवन के अंत तक मोर्चा के अध्यक्ष बने रहे। 01 जून 1986 को झामुमो के केंद्रीय समिती की बैठक में उन्होंने ऑल झारखण्ड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) का गठन किया और 19, 20 और 21 अक्टूबर 1986 को जमशेदपुर अखिल झारखण्ड छात्र एवं बुद्धिजीवी सम्मलेन का आयोजन कराकर आजसू को थोड़े ही दिनों में राष्ट्रीय स्तर पर खड़ा कर दिया। उन्होंने झारखण्ड अलग प्रान्त आंदोलन को गति प्रदान की और झारखण्ड के स्कूल और कॉलेज के छात्रों को सुसंगठित कर उन्हें इस आंदोलन में भाग लेने का आवाहन किया। उन्होंने छात्रों और नवयुवकों को विश्वास में लिया और बताया, कि
"केवल नवयुवक की शक्ति से ही अलग राज्य का सपना साकार हो सकता है।"
इसके बाद निर्मल महतो ने सूर्य सिंह बेसरा को आजसू का जनरल सेक्रेटरी बनाया और खुद कुर्मी छात्रों तथा पिछड़ी जाति के छात्रों और सूर्य सिंह बेसरा ने आदिवासी छात्रों को अपने मत में मिला इस आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेने का आवाहन किया। जब यह आंदोलन अपने चरम पर था, तभी दुर्भाग्यवश कुछ अपराधी तत्वों ने जमशेदपुर में 08 अगस्त 1987 को उनकी ह्त्या कर दी।
सूरज मंडल द्वारा पुलिस के समक्ष दिए गए बयान के अनुसार, सूरज मंडल एवं निर्मल महतो मोर्चे के कार्यकर्ताओं के साथ चमरिया, बिस्टुपुर स्थित टिस्को गेस्ट हाउस से बाहर निकल रहे थे। उसी समय एक अम्बेस्डर कार से पांच व्यक्ति उतरे। सूरज मंडल को कुछ शंका हुई, तो उन्होंने निर्मल महतो से अतिथिशाला के अंदर जाने को कहा। इसी बीच एक हमलावर ने निर्मल महतो का कालर पकड़ लिया, जिसे छुड़ाने के लिए सूरज मंडल लपके। सूरज मंडल ने छुड़ा भी लिया और पुनः अंदर जाने को कहा। इसी बीच सोनारी वासी वीरेंदर सिंह नामक एक व्यक्ति ने निर्मल महतो पर तीन गोलियां चला दी। एक गोली उनके मुँह पर, दूसरी गोली पीठ पर तथा तीसरी गोली उनके सीने में लगी, जिससे घटना स्थल पर ही उनकी मृत्यु हो गयी।
निर्मल महतो एक अच्छे संगठनकर्ता थे। उनमें अनंत आत्मविश्वास था। वे किसी भी गलत आचरण के खिलाफ आवाज़ उठाने से डरते नहीं थे। वे आजीवन गरीबों के लिए लड़े, गरीब किसानों और मजदूरों के लिए लड़े, झारखंडियों का आत्मविश्वास और आत्मसम्मान प्रदान करने के लिए आखिरी दम तक लड़े। वे शहीद हुए, मगर अपने जीवन में ना कभी प्रलोभित हुए और ना ही किसी तरह का कोई समझौता किये। शोषितों, पीड़ितों एवं ग़रीबों के साथी निर्मल महतो का एक ही सपना था, कि अपना अलग झारखण्ड प्रान्त हो, ताकि झारखण्ड क्षेत्र में रहने वाले लोगों को शोषण, उत्पीड़न, अत्याचार और भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाई जा सके।
ये उनके अथक प्रयास और बलिदान का ही परिणाम था,
कि 15 नवंबर 2000 को झारखण्ड अलग राज्य बना,
लेकिन एक सवाल, जो आज हर झारखंडी के मन में उबल रहा है, कि
"क्या वाकई निर्मल दा के सपनों का झारखण्ड बन पाया..????"
*जय गराम*
आईये थोड़ा जान ले शहीद निर्मल महतो "दादा" के बारे में..!!
झारखण्ड अलग राज्य के लिए अपना महत्वपूर्ण योगदान देने वाले और अपने बहुमूल्य जीवन का बलिदान देने वाले महान प्रेरणादायक, झारखण्ड के सच्चे और वीर सपूत निर्मल महतो का जन्म बिहार प्रदेश (तत्कालीन झारखण्ड) के सिंहभूम जिलान्तर्गत जमशेदपुर के उलियान नामक गाँव में 25 दिसंबर 1950 को हुआ था। इनके पिता का नाम श्री जगबंधु महतो और माता का नाम श्रीमती प्रिया महतो था। जगबंधु महतो के आठ पुत्र और एक पुत्री में से निर्मल महतो द्वितीय पुत्र थे, जो बचपन में बहुत ही नटखट माने जाते थे।
निर्मल महतो ने जमशेदपुर टाटा वर्कर्स यूनियन हाई स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा पास की थी तथा जमशेदपुर को-ऑपरेटिव कॉलेज से स्नातक की डिग्री हासिल की थी। पिता के टिस्को की नौकरी से अवकाश प्राप्त कर लेने से घर की आर्थिक स्थिति बिगड़ने लगी थी। इस कारण निर्मल महतो पढ़ाई के साथ-साथ बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाते थे और घर की आमदनी में योगदान देते थे। निर्मल महतो अंत तक बुरी आदतों के शिकार कभी नहीं बने, जैसे, न बीड़ी-सिगरेट, न खैनी-गुड़ाखू, न दारू पीने का लत और ना ही किसी और तरह की कोई भी कुसंगती का। सदा हंसमुख चेहरा वाले कर्मठ निर्मल, कठिन-से-कठिन परिस्थितियों में भी नहीं घबड़ाते थे। शांति पूर्वक तत्काल निर्णय लेना उनकी सबसे बड़ी विशेषताओं में से एक थी। उनमें बचपन से नेतृत्वकारी गुण थे। वे आजीवन अविवाहित रहे। उनमें कुछ कर गुजरने की ललक हमेशा रहती थी।
निर्मल महतो छात्र जीवन से ही राजनीति में रूचि लेने लगे थे। 1975 में कुछ असामाजिक तत्वों से उन्हें मुठभेड़ भी करनी पड़ी और अपनी पढ़ाई उन्हें अधूरी ही छोड़ देनी पड़ी। इसके बाद छात्र आंदोलन का नेतृत्व करते हुए वे झारखण्ड आंदोलन में कूद पड़े। अपना राजनीतिक जीवन उन्होंने झारखण्ड पार्टी से शुरू किया और एक जुझारू नेता के रूप में अपने आप को स्थापित किया। वे 1980 के बिहार विधान सभा के चुनाव में लड़े, लेकिन विजयी नहीं हुए, क्योंकि सभी पार्टियां और पूँजीपति मिलकर उन्हें हराने का भरसक प्रयास किया था।
झारखण्ड पार्टी में सन् 1972 से 1980 तक रहते हुए वे लगातार ग्रामीणों और शहर के गरीब लोगों के लिए काम करते रहे। आगे चलकर झारखण्ड पार्टी में आयी हुई पतनशीलता को देखते हुए एवं शैलेन्द्र महतो की प्रेरणा से गुआ-गोली- काण्ड के बाद वे 15 दिसंबर 1980 को झारखण्ड मुक्ति मोर्चा (झा० मु० मो०) में विधिवत रूप से शामिल हो गए।
झारखण्ड क्षेत्र में खुटकटी हक़ को बरक़रार रखने का आंदोलन, जंगल और सुदूर देहाती क्षेत्रों के सड़कों को मुख्य सड़क से जोड़ने का आंदोलन, स्कूल निर्माण एवं अस्पताल खोलने का आंदोलन, जंगल से उत्पादित वस्तुओं का उचित मूल्य आदिवासियों को मिले, देहात के हाट-बाज़ारों में महसुल वसूली बंद का आंदोलन, कारखानों एवं खदानों में नौकरी पाने का आंदोलन समेत ऐसे कई आंदोलन जारी किया गया था। इस ऐतिहासिक आंदोलन के दरम्यान गुआ बाजार में 08 सितम्बर 1980 को झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के विशाल सभा को पुलिस अपनी राइफल से लाशों के ढेर में बदल देती है।
18 जुलाई 1981 को जमशेदपुर में झामुमो का जिला सम्मलेन आयोजित किया गया, जिसमें निर्मल महतो को मोर्चा का जिला उपाध्यक्ष निर्वाचित किया गया। 21 अक्टूबर 1982 को सुवर्ण रेखा डैम (चांडिल) से विस्थापित परिवारों को पुनर्वासित कराने एवं उन्हें नौकरी दिलाने के लिए क्रांतिकारी छात्र युवा मोर्चा द्वारा तिरुलडीह स्थित ईचागढ़ प्रखंड कार्यालय के सामने जन-प्रदर्शन के आयोजन में पुलिस की गोलियां चली। उस गोलीकांड में चांडिल स्थित सिंहभूम कॉलेज के दो छात्र अजीत महतो और धनञ्जय महतो शहीद हुए। इस गोलीकांड के बाद निर्मल महतो पर आम लोगों का विश्वास और बढ़ा।
01 और 02 जनवरी 1983 को धनबाद में झामुमो का प्रथम केन्द्रीय महाधिवेशन हुआ और श्री निर्मल महतो को उनकी कर्मठता एवं कार्यशैली से प्रभावित होकर उसी समय केंद्रीय कार्यकारिणी समिती का सदस्य चुन लिया गया। 06 अप्रैल 1984 को बोकारो में झामुमो की केन्द्रीय समिती की बैठक हुई, जिसमें सर्वसम्मति से निर्मल महतो को अध्यक्ष चुना गया। इस प्रकार श्री निर्मल महतो को उनकी कर्मठता, लगनशीलता और पार्टी के प्रति वफादारी के कारण अल्प समय में ही पार्टी का सर्वोच्च पद का सम्मान दिया गया। 1984 ई० में वे रांची लोकसभा क्षेत्र और 1985 में ईचागढ़ क्षेत्र से लड़े, किन्तु दोनों में विजयी नहीं हो सके।
28 अप्रैल 1986 के झामुमो के द्वितीय केंद्रीय महाधिवेशन में दूसरी बार भी उनको पार्टी का अध्यक्ष चुना गया। वे जीवन के अंत तक मोर्चा के अध्यक्ष बने रहे। 01 जून 1986 को झामुमो के केंद्रीय समिती की बैठक में उन्होंने ऑल झारखण्ड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) का गठन किया और 19, 20 और 21 अक्टूबर 1986 को जमशेदपुर अखिल झारखण्ड छात्र एवं बुद्धिजीवी सम्मलेन का आयोजन कराकर आजसू को थोड़े ही दिनों में राष्ट्रीय स्तर पर खड़ा कर दिया। उन्होंने झारखण्ड अलग प्रान्त आंदोलन को गति प्रदान की और झारखण्ड के स्कूल और कॉलेज के छात्रों को सुसंगठित कर उन्हें इस आंदोलन में भाग लेने का आवाहन किया। उन्होंने छात्रों और नवयुवकों को विश्वास में लिया और बताया, कि
"केवल नवयुवक की शक्ति से ही अलग राज्य का सपना साकार हो सकता है।"
इसके बाद निर्मल महतो ने सूर्य सिंह बेसरा को आजसू का जनरल सेक्रेटरी बनाया और खुद कुर्मी छात्रों तथा पिछड़ी जाति के छात्रों और सूर्य सिंह बेसरा ने आदिवासी छात्रों को अपने मत में मिला इस आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेने का आवाहन किया। जब यह आंदोलन अपने चरम पर था, तभी दुर्भाग्यवश कुछ अपराधी तत्वों ने जमशेदपुर में 08 अगस्त 1987 को उनकी ह्त्या कर दी।
सूरज मंडल द्वारा पुलिस के समक्ष दिए गए बयान के अनुसार, सूरज मंडल एवं निर्मल महतो मोर्चे के कार्यकर्ताओं के साथ चमरिया, बिस्टुपुर स्थित टिस्को गेस्ट हाउस से बाहर निकल रहे थे। उसी समय एक अम्बेस्डर कार से पांच व्यक्ति उतरे। सूरज मंडल को कुछ शंका हुई, तो उन्होंने निर्मल महतो से अतिथिशाला के अंदर जाने को कहा। इसी बीच एक हमलावर ने निर्मल महतो का कालर पकड़ लिया, जिसे छुड़ाने के लिए सूरज मंडल लपके। सूरज मंडल ने छुड़ा भी लिया और पुनः अंदर जाने को कहा। इसी बीच सोनारी वासी वीरेंदर सिंह नामक एक व्यक्ति ने निर्मल महतो पर तीन गोलियां चला दी। एक गोली उनके मुँह पर, दूसरी गोली पीठ पर तथा तीसरी गोली उनके सीने में लगी, जिससे घटना स्थल पर ही उनकी मृत्यु हो गयी।
निर्मल महतो एक अच्छे संगठनकर्ता थे। उनमें अनंत आत्मविश्वास था। वे किसी भी गलत आचरण के खिलाफ आवाज़ उठाने से डरते नहीं थे। वे आजीवन गरीबों के लिए लड़े, गरीब किसानों और मजदूरों के लिए लड़े, झारखंडियों का आत्मविश्वास और आत्मसम्मान प्रदान करने के लिए आखिरी दम तक लड़े। वे शहीद हुए, मगर अपने जीवन में ना कभी प्रलोभित हुए और ना ही किसी तरह का कोई समझौता किये। शोषितों, पीड़ितों एवं ग़रीबों के साथी निर्मल महतो का एक ही सपना था, कि अपना अलग झारखण्ड प्रान्त हो, ताकि झारखण्ड क्षेत्र में रहने वाले लोगों को शोषण, उत्पीड़न, अत्याचार और भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाई जा सके।
ये उनके अथक प्रयास और बलिदान का ही परिणाम था,
कि 15 नवंबर 2000 को झारखण्ड अलग राज्य बना,
लेकिन एक सवाल, जो आज हर झारखंडी के मन में उबल रहा है, कि
"क्या वाकई निर्मल दा के सपनों का झारखण्ड बन पाया..????"
*जय गराम*
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